Monday, November 8, 2010
||पेंतीस||
धुआं-धुआं भोर
कोहरे में
अपना अस्तित्व ढूँढ़ती है
नमी कितनी भी/ओड़ ले कोहरा
एक दिन/सुलगती हुई आग
लपटों में बदलेगी जरूर
धुआं-धुआं भोर
उस दिन का/ इंतजार करती है
||छत्तीस||
मेरी आँख का नम होना
तुम्हारी आँख में
साफ चमकता है
पर/तुम्हारी आँख
नम नहीं हो पाती
मैं जानता हूँ-
इससे बड़ी मजबूरी
और नहीं हो सकती
||सेंतीस||
चल मेरे घोड़े
फिर वहीं चलें
खाक हुए जंगल में
कहीं/ढूंढे तनिक सी
हरी-हरी दूब
या फिर/ बन जा तू ऊँट
और ढूंढें रेगिस्तान में
कहीं कोई पानी की बूंद!
||अड़तीस||
तारीख़- वही
और/लौट आई
महीने के साथ
मेरा विश्वास
टूट गया/फिर
एक बार!
Sunday, September 26, 2010
||एकतीस||
जितना
उन्होंने लिखा-
वह तोड़ती पत्थर
उतना और
तुम बन गये/ पत्थर
वह/ आज भी
है तोड़ती पत्थर!
||बत्तीस||
माँगा हमने / सुबह
चुल्लू भर पानी
दोपहर को / वादा मिला
एक प्याला अमृत का
पिलाया गया
घड़ा भर जहर/ शाम को
||तेतीस||
आओ देखें
कैसे कुचला जा रहा है
मुक्त गगन में उड़ने वाले
कबूतरों को
और / कि-
ये कबूतर / कभी
मुक्त गगन में उड़े भी थे?
||चोंतीस||
काजल की कोठरी में
बहुत से सयाने गये
और जब निकले
सभी स्वच्छ-निर्मल थे
बस- कुछ आँखों से
कुछ कानों से/ और कुछ
जुबानों से विहीन थे
Saturday, August 7, 2010
Friday, July 30, 2010
||सत्ताईस||
उड़ जाते हैं
बारूद के विस्फोट-भर से
कुछ पहाड़ वैसे होते हैं
नहीं उड़ते
दिल के विस्फोट से भी
कुछ पहाड़ ऐसे होते हैं
||अट्ठाईस||
प्रभु !
आपने एक समुद्र-मंथन से निकला
विष पिया था
देवताओं की प्रार्थना पर
आपको नीलकंठ कहते हैं
जो रोज
कितने ही समुद्र-मंथनों से निकला
विष पीता है
बिना किसी प्रार्थना के
उसको क्या कहते हैं ?
उड़ जाते हैं
बारूद के विस्फोट-भर से
कुछ पहाड़ वैसे होते हैं
नहीं उड़ते
दिल के विस्फोट से भी
कुछ पहाड़ ऐसे होते हैं
||अट्ठाईस||
प्रभु !
आपने एक समुद्र-मंथन से निकला
विष पिया था
देवताओं की प्रार्थना पर
आपको नीलकंठ कहते हैं
जो रोज
कितने ही समुद्र-मंथनों से निकला
विष पीता है
बिना किसी प्रार्थना के
उसको क्या कहते हैं ?
Thursday, July 22, 2010
||पच्चीस||
तेरी तस्वीर में
हर रंग भरकर देखा है
ये बिलकुल नहीं बदलती है
कौन सी आभा की
रेखाओं से बनी है
कि हर क्षण
सिर्फ अपना-सा दमकती है
||छब्बीस||
तुम्हारी तस्वीर में
तुम्हारी रंगत देखकर
झूम जाता हूँ
और तुम्हारी खुशबुओं में
डूब जाता हूँ
पर तुम पास होते हो / तो
तुम्हारी रंगत और खुशबू - दोनों को
भूल जाता हूँ
मैं इस कदर
तुममें डूब जाता हूँ
तेरी तस्वीर में
हर रंग भरकर देखा है
ये बिलकुल नहीं बदलती है
कौन सी आभा की
रेखाओं से बनी है
कि हर क्षण
सिर्फ अपना-सा दमकती है
||छब्बीस||
तुम्हारी तस्वीर में
तुम्हारी रंगत देखकर
झूम जाता हूँ
और तुम्हारी खुशबुओं में
डूब जाता हूँ
पर तुम पास होते हो / तो
तुम्हारी रंगत और खुशबू - दोनों को
भूल जाता हूँ
मैं इस कदर
तुममें डूब जाता हूँ
Thursday, July 15, 2010
Thursday, May 27, 2010
क्षणिकाएं / डॉ0 उमेश महादोषी
//सत्रह//
बहुत उड़ लिए
आकाश में
पक्षी प्यारे!
अब उतरो धरती पर
सूंघो/ तुम भी
लहू की गंध
देखो / बने
बारूद के तारे
//अठारह //
लाल अक्षरों में
अब / हमें
रोपना ही होगा
पर्णहरित
अन्यथा / शब्द सारे
राख हो जायेंगे
और भाषा मर जाएगी
//उन्नीस//
तुम्हारी ओरसे / आज
मैं लड़ रहा हूँ, इतिदेव!
तारीखों को
गवाह बनने दो
कल मेरी ओर से
कौन लड़ेगा ?
उत्तर दो !
//बीस //
कुछ हारी, कुछ जीती
लग गई है होड़
बाजियों में
बिक गया है
वतन मेरा
दलालियों में
बहुत उड़ लिए
आकाश में
पक्षी प्यारे!
अब उतरो धरती पर
सूंघो/ तुम भी
लहू की गंध
देखो / बने
बारूद के तारे
//अठारह //
लाल अक्षरों में
अब / हमें
रोपना ही होगा
पर्णहरित
अन्यथा / शब्द सारे
राख हो जायेंगे
और भाषा मर जाएगी
//उन्नीस//
तुम्हारी ओरसे / आज
मैं लड़ रहा हूँ, इतिदेव!
तारीखों को
गवाह बनने दो
कल मेरी ओर से
कौन लड़ेगा ?
उत्तर दो !
//बीस //
कुछ हारी, कुछ जीती
लग गई है होड़
बाजियों में
बिक गया है
वतन मेरा
दलालियों में
Sunday, May 16, 2010
क्षणिकाएं/ डॉ० उमेश महादोषी
//तेरह//
आकाश को उतार कर
जिस्म से
मैं धरती होना चाहता हूँ
हे प्रतीक !
हटो अब
अपनी जगह
मैं स्वयं लेना चाहता हूँ.
//चौदह//
जितने तीर / तुम्हारे तरकश में थे
तुमने चला लिए
हमारी देह मगर खाली रही
घाओं के लिए
अब तुम सम्हालो देह अपनी
कुछ तीर हमारे पास भी हैं
देखना है / वक़्त
कौन सा इतिहास रचता है.
//पंद्रह//
उनके कान पर
जूं रेंगता तो है
पर जा छुपता है/ बालों में तुरंत
जरूरी है
हम खड़े हों पहले
उनके बालों के खिलाफ!
//सोलह//
कब तलक
अट्ठास करोगे
कान मूंदकर
हड्डियाँ
क्रांति का
शंख होती हैं.
//तेरह//
आकाश को उतार कर
जिस्म से
मैं धरती होना चाहता हूँ
हे प्रतीक !
हटो अब
अपनी जगह
मैं स्वयं लेना चाहता हूँ.
//चौदह//
जितने तीर / तुम्हारे तरकश में थे
तुमने चला लिए
हमारी देह मगर खाली रही
घाओं के लिए
अब तुम सम्हालो देह अपनी
कुछ तीर हमारे पास भी हैं
देखना है / वक़्त
कौन सा इतिहास रचता है.
//पंद्रह//
उनके कान पर
जूं रेंगता तो है
पर जा छुपता है/ बालों में तुरंत
जरूरी है
हम खड़े हों पहले
उनके बालों के खिलाफ!
//सोलह//
कब तलक
अट्ठास करोगे
कान मूंदकर
हड्डियाँ
क्रांति का
शंख होती हैं.
Wednesday, May 5, 2010
क्षणिकाएं/ डॉ० उमेश महादोषी
//नौ //
खुदा! लगने लगा है
तेरी चापों से / बेहद डर
मत आया कर / अब
तू मेरे घर
रिसने दे मुझे
बनकर स्याही / मेरी कलम से
तेरी तूलिका से / छिटक गया है
मेरा मन!
//दस//
तालाब की मछली को
बार-बार पकड़ना चाहा
पर/ पकड़ नहीं आई
हर बार
पेड़ पर बैठी चिड़िया
मेरे कान में चहचहाई
//ग्यारह//
कलम की छोटी-सी कोख से
पैदा हुआ / इतना बड़ा मैं
लोगों ने
कलम का दर्द ही समझा
और मैं
रिसता रहा / स्याही बनकर
अच्छर-अच्छर ......!
// बारह //
गोबर में
छिपा है- खुदा
खाद के रास्ते
पौधों तक पहुंचता है
बदलकर अन्न में
मिटाता है- छुधा
//नौ //
खुदा! लगने लगा है
तेरी चापों से / बेहद डर
मत आया कर / अब
तू मेरे घर
रिसने दे मुझे
बनकर स्याही / मेरी कलम से
तेरी तूलिका से / छिटक गया है
मेरा मन!
//दस//
तालाब की मछली को
बार-बार पकड़ना चाहा
पर/ पकड़ नहीं आई
हर बार
पेड़ पर बैठी चिड़िया
मेरे कान में चहचहाई
//ग्यारह//
कलम की छोटी-सी कोख से
पैदा हुआ / इतना बड़ा मैं
लोगों ने
कलम का दर्द ही समझा
और मैं
रिसता रहा / स्याही बनकर
अच्छर-अच्छर ......!
// बारह //
गोबर में
छिपा है- खुदा
खाद के रास्ते
पौधों तक पहुंचता है
बदलकर अन्न में
मिटाता है- छुधा
Friday, March 5, 2010
क्षणिकाएं / उमेश महादोषी
//पांच //
जब कभी/ मैंने
किसी पत्ते पर बैठकर
कोई नदी पार की है
मेरा वजन बढ गया है
और पत्ता/ मेरे लिए
नाव बन गया है
दूर तक/ देखता रहा
बहती नदी को
पानी भी
आकाश नज़र आया
वह/ उठा और चला गया
नदी किनारे/ फिर
कभी नहीं आया
गंगू की आँख में
सरसों उगी
और मस्तक में
कोल्हू चला
पर/ लटकाकर उल्टा
उसके भाग्य को छत से
तेल सारा
राजा भोज पी गया
सेंजना में डूबती है गाय
हाय! कोई न बचाय
तू भी देख ले
ओ बे नियंता !
तेरी हाय हाय हाय !!!
****
Saturday, February 27, 2010
चार क्षणिकाएँ/ उमेश महादोषी
॥एक॥
मेरे हाथों की लकीरें
ब्लेड से छील देते हो
बार-बार
पर/खून की जिस बूँद से
बनती हैं हजारों-हजार लकीरें
तुम किस चीज़ से काटोगे
उस बूँद के टुकड़े!
॥दो॥
क्या खूब कहानी है
इस सिंघासन की
इस पर बैठने वाला/ हर राजा
हमारी/मुक्ति की
बात करता है
और/ इसके पाये
रखे रहते हैं--
हमारे सीनों पर
॥तीन॥
अम्मा की साँस में
समा गया है--
चूल्हे का धुआँ
खटिया पै पड़ी-पड़ी
वह/नर्क-सा भोगती हैं
क्या करें!
डॉक्टर जानता है/बस
टी बी और दमा
॥चार॥
झोटा रे झोटा
सुन भैंस के ढोटा
उनके भरे गुदाम/ लेकिन
तेरा अपना खाली कुठला
थोड़ी-सी अकल काम ले
अब तो मेरे भाई!
पकी फसल की मेंढ़ों पर
सींग उठाकर डट जा
****
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