Friday, July 30, 2010

||सत्ताईस||

उड़ जाते हैं
बारूद के विस्फोट-भर से
कुछ पहाड़ वैसे होते हैं
नहीं उड़ते
दिल के विस्फोट से भी
कुछ पहाड़ ऐसे होते हैं

||अट्ठाईस||

प्रभु !
आपने एक समुद्र-मंथन से निकला
विष पिया था
देवताओं की प्रार्थना पर
आपको नीलकंठ कहते हैं
जो रोज
कितने ही समुद्र-मंथनों से निकला
विष पीता है
बिना किसी प्रार्थना के
उसको क्या कहते हैं ?

Thursday, July 22, 2010

||पच्चीस||

तेरी तस्वीर में
हर रंग भरकर देखा है
ये बिलकुल नहीं बदलती है
कौन सी आभा की
रेखाओं से बनी है
कि हर क्षण
सिर्फ अपना-सा दमकती है

||छब्बीस||

तुम्हारी तस्वीर में
तुम्हारी रंगत देखकर
झूम जाता हूँ
और तुम्हारी खुशबुओं में
डूब जाता हूँ
पर तुम पास होते हो / तो
तुम्हारी रंगत और खुशबू - दोनों को
भूल जाता हूँ
मैं इस कदर
तुममें डूब जाता हूँ

Thursday, July 15, 2010

||तेईस||

भीगी पलकों के नीचे
उभरा एक बिम्ब
उभरकर / ठहरा तनिक
फिर हो गया जैसे गुम
खुदा की तूलिका ने खींच दिया--
अनंत तक
और वही शून्य !

||चौबीस||

छू नहीं पाई
गहराई
तो / जीनी पड़ी हमें
सागर पार
भरपूर तन्हाई
कितनी भयंकर है , आह!
काला पानी की सजा

||इक्कीस||
खुदा रे !
तेरी खुदाई
तू ही जाने
मुझे तो /बस
इतना बता दे
बन्दे की
जिंदगी के माने
समझा दे !

||बाईस||

आग का दरिया
नंगे पांव / पार करने के बाद
जो बिम्ब उभरा था
उसका अर्थ / जैसे
मेरे यथार्थ में मिल गया है
एक क्षण के लिए / वातावरण
चन्दन की शीतलता से भर गया है