Sunday, May 16, 2010

क्षणिकाएं/ डॉ उमेश महादोषी

//तेरह//

आकाश को उतार कर
जिस्म से
मैं धरती होना चाहता हूँ
हे प्रतीक !
हटो अब
अपनी जगह
मैं स्वयं लेना चाहता हूँ.

//चौदह//

जितने तीर / तुम्हारे तरकश में थे
तुमने चला लिए
हमारी देह मगर खाली रही
घाओं के लिए
अब तुम सम्हालो देह अपनी
कुछ तीर हमारे पास भी हैं
देखना है / वक़्त
कौन सा इतिहास रचता है.

//पंद्रह//

उनके कान पर
जूं रेंगता तो है
पर जा छुपता है/ बालों में तुरंत
जरूरी है
हम खड़े हों पहले
उनके बालों के खिलाफ!


//सोलह//

कब तलक
अट्ठास करोगे
कान मूंदकर

हड्डियाँ
क्रांति का
शंख होती हैं.

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