Tuesday, March 19, 2013

चार और क्षणिकाएँ


छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
।।सत्तावन।।


धूल का गुबार-सा
उठता रहा ब्रह्माण्ड में
एक बच्चा धरती पर खड़ा
देखता रहा.... देखता रहा
और उसने
दे मारा
पानी से भरा एक गुब्बारा!




।।अट्ठावन।।


कमी 
मेरे समर्पण में है
या तुम्हारे स्वीकार में
कि हर बार
मैं रह जाता हूँ
एक पुरुष का अहं बनकर 
और तुम
एक आहत मन-भर!


।।उनसठ।।


इतना.... इतना.....
धुआँ उगलकर भी
चैन नहीं आया
नहीं शान्त हुई
अन्तर की आग!

अब... अब....
इस तमाम धुएँ को
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
बादल में बदलकर देखो....!


।।साठ।।



तुम्हारी सुगन्ध को 
उतारता हूँ अपने अन्तर में
आक्रोश से भरे
तुम उंगलियों से 
बन्द किए रहते हो अपनी नाक

क्या कभी सूंघकर देखा है
मेरे बदन से हमेशा
दुर्गन्ध ही निकलती है?


7 comments:

सीमा स्‍मृति said...

Wah !sabhi shanika bahut sunder.

Nityanand Gayen said...

उत्कृष्ट क्षणिकाएं

shobha rastogi shobha said...

माननीय उमेश जी
नमन
क्य।क्य ..रच देते हैं आप ...अपनी सी बात लगती है । बेहद प्रशंसनीय अभिव्यक्ति ...सरल शब्दपरिधन में ..सलाम ...

मैं रह जाता हूँ
एक पुरुष का अहं बनकर
और तुम
एक आहत मन-भर!

राजेश उत्‍साही said...

उमेशजी, मेरी प्रतिक्रिया।
पहली रचना अंत में आकर दम तोड़ देती है। दूसरी अपनी बात कहने में सफल लग रही है। तीसरी रचना में अगर धुएं की जगह गुबार होता तो शायद वह अपनी बात पूरी तरह कहती। चौथी रचना का पहला हिस्‍सा अच्‍छा है पर दूसरे हिस्‍से में बात बनती नहीं है।

प्रियंका गुप्ता said...

सुन्दर क्षणिकाएँ...बधाई...|

प्रियंका गुप्ता

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

बहुत भावपूर्ण क्षणिकाएँ!
~सादर!!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर!