Sunday, September 26, 2010




||
एकतीस||

जितना
उन्होंने लिखा-
वह तोड़ती पत्थर
उतना और
तुम बन गये/ पत्थर
वह/ आज भी
है तोड़ती पत्थर!

||बत्तीस||
माँगा हमने / सुबह
चुल्लू भर पानी

दोपहर को / वादा मिला
एक प्याला अमृत का

पिलाया गया
घड़ा भर जहर/ शाम को

||तेतीस||
आओ देखें
कैसे कुचला जा रहा है
मुक्त गगन में उड़ने वाले
कबूतरों को

और / कि-
ये कबूतर / कभी
मुक्त गगन में उड़े भी थे?

||चोंतीस||
काजल की कोठरी में
बहुत से सयाने गये
और जब निकले
सभी स्वच्छ-निर्मल थे
बस- कुछ आँखों से
कुछ कानों से/ और कुछ
जुबानों से विहीन थे

5 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

अद्भुत और लाजवाब......!!
बहुत दिनों बाद कुछ अच्छा पढने को मिला .....!!

शरद कोकास said...

छोटी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण कवितायें

हरकीरत ' हीर' said...

चौतीस के बाद अब आगे बढिए ......

Shabad shabad said...

वाह बहुत खूब!

Anonymous said...

Sabhi chhadikaye bahut hi sunder tatha uchchstariya evam sargarbhit hain. aapko badhai

umesh mohan dhawan