क्षणिकाएं/ डॉ० उमेश महादोषी
//तेरह//
आकाश को उतार कर
जिस्म से
मैं धरती होना चाहता हूँ
हे प्रतीक !
हटो अब
अपनी जगह
मैं स्वयं लेना चाहता हूँ.
//चौदह//
जितने तीर / तुम्हारे तरकश में थे
तुमने चला लिए
हमारी देह मगर खाली रही
घाओं के लिए
अब तुम सम्हालो देह अपनी
कुछ तीर हमारे पास भी हैं
देखना है / वक़्त
कौन सा इतिहास रचता है.
//पंद्रह//
उनके कान पर
जूं रेंगता तो है
पर जा छुपता है/ बालों में तुरंत
जरूरी है
हम खड़े हों पहले
उनके बालों के खिलाफ!
//सोलह//
कब तलक
अट्ठास करोगे
कान मूंदकर
हड्डियाँ
क्रांति का
शंख होती हैं.
Sunday, May 16, 2010
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