//सत्रह//
बहुत उड़ लिए
आकाश में
पक्षी प्यारे!
अब उतरो धरती पर
सूंघो/ तुम भी
लहू की गंध
देखो / बने
बारूद के तारे
//अठारह //
लाल अक्षरों में
अब / हमें
रोपना ही होगा
पर्णहरित
अन्यथा / शब्द सारे
राख हो जायेंगे
और भाषा मर जाएगी
//उन्नीस//
तुम्हारी ओरसे / आज
मैं लड़ रहा हूँ, इतिदेव!
तारीखों को
गवाह बनने दो
कल मेरी ओर से
कौन लड़ेगा ?
उत्तर दो !
//बीस //
कुछ हारी, कुछ जीती
लग गई है होड़
बाजियों में
बिक गया है
वतन मेरा
दलालियों में
Thursday, May 27, 2010
Sunday, May 16, 2010
क्षणिकाएं/ डॉ० उमेश महादोषी
//तेरह//
आकाश को उतार कर
जिस्म से
मैं धरती होना चाहता हूँ
हे प्रतीक !
हटो अब
अपनी जगह
मैं स्वयं लेना चाहता हूँ.
//चौदह//
जितने तीर / तुम्हारे तरकश में थे
तुमने चला लिए
हमारी देह मगर खाली रही
घाओं के लिए
अब तुम सम्हालो देह अपनी
कुछ तीर हमारे पास भी हैं
देखना है / वक़्त
कौन सा इतिहास रचता है.
//पंद्रह//
उनके कान पर
जूं रेंगता तो है
पर जा छुपता है/ बालों में तुरंत
जरूरी है
हम खड़े हों पहले
उनके बालों के खिलाफ!
//सोलह//
कब तलक
अट्ठास करोगे
कान मूंदकर
हड्डियाँ
क्रांति का
शंख होती हैं.
//तेरह//
आकाश को उतार कर
जिस्म से
मैं धरती होना चाहता हूँ
हे प्रतीक !
हटो अब
अपनी जगह
मैं स्वयं लेना चाहता हूँ.
//चौदह//
जितने तीर / तुम्हारे तरकश में थे
तुमने चला लिए
हमारी देह मगर खाली रही
घाओं के लिए
अब तुम सम्हालो देह अपनी
कुछ तीर हमारे पास भी हैं
देखना है / वक़्त
कौन सा इतिहास रचता है.
//पंद्रह//
उनके कान पर
जूं रेंगता तो है
पर जा छुपता है/ बालों में तुरंत
जरूरी है
हम खड़े हों पहले
उनके बालों के खिलाफ!
//सोलह//
कब तलक
अट्ठास करोगे
कान मूंदकर
हड्डियाँ
क्रांति का
शंख होती हैं.
Wednesday, May 5, 2010
क्षणिकाएं/ डॉ० उमेश महादोषी
//नौ //
खुदा! लगने लगा है
तेरी चापों से / बेहद डर
मत आया कर / अब
तू मेरे घर
रिसने दे मुझे
बनकर स्याही / मेरी कलम से
तेरी तूलिका से / छिटक गया है
मेरा मन!
//दस//
तालाब की मछली को
बार-बार पकड़ना चाहा
पर/ पकड़ नहीं आई
हर बार
पेड़ पर बैठी चिड़िया
मेरे कान में चहचहाई
//ग्यारह//
कलम की छोटी-सी कोख से
पैदा हुआ / इतना बड़ा मैं
लोगों ने
कलम का दर्द ही समझा
और मैं
रिसता रहा / स्याही बनकर
अच्छर-अच्छर ......!
// बारह //
गोबर में
छिपा है- खुदा
खाद के रास्ते
पौधों तक पहुंचता है
बदलकर अन्न में
मिटाता है- छुधा
//नौ //
खुदा! लगने लगा है
तेरी चापों से / बेहद डर
मत आया कर / अब
तू मेरे घर
रिसने दे मुझे
बनकर स्याही / मेरी कलम से
तेरी तूलिका से / छिटक गया है
मेरा मन!
//दस//
तालाब की मछली को
बार-बार पकड़ना चाहा
पर/ पकड़ नहीं आई
हर बार
पेड़ पर बैठी चिड़िया
मेरे कान में चहचहाई
//ग्यारह//
कलम की छोटी-सी कोख से
पैदा हुआ / इतना बड़ा मैं
लोगों ने
कलम का दर्द ही समझा
और मैं
रिसता रहा / स्याही बनकर
अच्छर-अच्छर ......!
// बारह //
गोबर में
छिपा है- खुदा
खाद के रास्ते
पौधों तक पहुंचता है
बदलकर अन्न में
मिटाता है- छुधा
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