क्षणिकाएं / उमेश महादोषी
//पांच //
जब कभी/ मैंने
किसी पत्ते पर बैठकर
कोई नदी पार की है
मेरा वजन बढ गया है
और पत्ता/ मेरे लिए
नाव बन गया है
दूर तक/ देखता रहा
बहती नदी को
पानी भी
आकाश नज़र आया
वह/ उठा और चला गया
नदी किनारे/ फिर
कभी नहीं आया
गंगू की आँख में
सरसों उगी
और मस्तक में
कोल्हू चला
पर/ लटकाकर उल्टा
उसके भाग्य को छत से
तेल सारा
राजा भोज पी गया
सेंजना में डूबती है गाय
हाय! कोई न बचाय
तू भी देख ले
ओ बे नियंता !
तेरी हाय हाय हाय !!!
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1 comment:
हमेशा की तरह उम्दा क्षणिकाएँ--विशेषत: पाँचवीं और सातवीं। इन दोनों में असीम गहराई है।
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