Monday, November 8, 2010
||पेंतीस||
धुआं-धुआं भोर
कोहरे में
अपना अस्तित्व ढूँढ़ती है
नमी कितनी भी/ओड़ ले कोहरा
एक दिन/सुलगती हुई आग
लपटों में बदलेगी जरूर
धुआं-धुआं भोर
उस दिन का/ इंतजार करती है
||छत्तीस||
मेरी आँख का नम होना
तुम्हारी आँख में
साफ चमकता है
पर/तुम्हारी आँख
नम नहीं हो पाती
मैं जानता हूँ-
इससे बड़ी मजबूरी
और नहीं हो सकती
||सेंतीस||
चल मेरे घोड़े
फिर वहीं चलें
खाक हुए जंगल में
कहीं/ढूंढे तनिक सी
हरी-हरी दूब
या फिर/ बन जा तू ऊँट
और ढूंढें रेगिस्तान में
कहीं कोई पानी की बूंद!
||अड़तीस||
तारीख़- वही
और/लौट आई
महीने के साथ
मेरा विश्वास
टूट गया/फिर
एक बार!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
@ एक दिन/सुलगती हुई आग
लपटों में बदलेगी जरूर
उम्मीद ही ज़िन्दगी है .....
@ मेरी आँख का नाम होना
तुम्हारी आँख में
साफ चमकता है
पर/तुम्हारी आँख
नम नहीं हो पाती
मैं जानता हूँ-
इससे बड़ी मजबूरी
और नहीं हो सकती
ओह .....
कहीं गहरा जख्म है ....
(ऊपर 'नाम' में टंकण की त्रुटी है .... )
@ खाक हुए जंगल में
कहीं/ढूंढे तनिक सी
हरी-हरी दूब
बेहद गंभीर सशक्त लेखन ....!!
बधाई ....!!
हीर जी धन्यवाद! गलती ठीक कर दी है। नियमित रूप से मेरी क्षणिकाओं को पढ़ने और उत्साहबर्धक टिप्पणी दर्ज करने के लिए आपको धन्यवाद देना शायद ज्यादा औपचारिक हो जायेगा। पर एक बात कोई भी आपसे सीख सकता है- रचनाकार जिस स्तर पर जाकर लेखन करता है, उसके लेखन को उसी स्तर पर जाकर समझा जाये। यह बात मेरी रचनाओं के स्तर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। कई अन्य रचनाकारों की रचनाओं पर भी आपकी टिप्पणियां देखी हैं।.................. निश्चित ही आप जितना अच्छा लेखन करती हैं, उतना ही सम्मान दूसरों की रचनाओं को भी देती हैं।
तुम्हारी इन कविताओं में तुम्हारा आज झलकता है। दरअसल यह आज के आम-आदमी का आज है।
तारीख--वही
और/लौट आई
महीने के साथ
इन जैसी पंक्तियाँ अन्दर तक छील डालने वाली हैं। और छत्तीसवीं तो अनुपम है।
शुक्रिया महादोषी जी , अच्छा लेखन अपनी तारीफ खुद करवाता है .....
मुझे तो आत्म संतुष्टि मिलती है पढ़कर ....!!
सभी क्षणिकाएं पढ लीं। कुछ बेहद प्रभावशाली हैं ।बधाई।
हर क्षणिका बहुत ही शसक्त है..... बेहतरीन प्रस्तुति.
Post a Comment