छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
धूल का गुबार-सा
उठता रहा ब्रह्माण्ड में
एक बच्चा धरती पर खड़ा
देखता रहा.... देखता रहा
और उसने
दे मारा
पानी से भरा एक गुब्बारा!
।।अट्ठावन।।
कमी
मेरे समर्पण में है
या तुम्हारे स्वीकार में
कि हर बार
मैं रह जाता हूँ
एक पुरुष का अहं बनकर
और तुम
एक आहत मन-भर!
।।उनसठ।।
इतना.... इतना.....
धुआँ उगलकर भी
चैन नहीं आया
नहीं शान्त हुई
अन्तर की आग!
अब... अब....
इस तमाम धुएँ को
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
।।साठ।।
तुम्हारी सुगन्ध को
उतारता हूँ अपने अन्तर में
आक्रोश से भरे
तुम उंगलियों से
बन्द किए रहते हो अपनी नाक
क्या कभी सूंघकर देखा है
मेरे बदन से हमेशा
दुर्गन्ध ही निकलती है?